किस वर्ण का
उच्चारण कैसे करें, यह एक महत्त्वपूर्ण सवाल है। अक्सर हम
देखते हैं कि व्यक्ति अपने क्षेत्रीय उच्चारण से इस कदर घिरा या बँधा रहता है कि उच्चारण
का कोई स्पष्ट मानक रूप सामने नहीं आ पाता। कुछ वर्ण तो ऐसे हैं, जिनका उच्चारण अब समाप्ति की ओर है, क्योंकि न तो कोई
सिखाने वाला मिलता है, न कोई इतना सीखने के लिए किसी योग्य प्रशिक्षक
की तलाश करता है। उच्चारण से यह पता लगता है कि व्यक्ति भाषा को लेकर कितना सजग है।
बिहार में इसे लेकर कोई गंभीरता हमें नहीं मिलती। हिन्दी के शिक्षक भी लापरवाही से
पेश आते हैं। हम यहाँ व्यंजन, स्वर, अंग्रेज़ी
और अरबी से लिए गए अक्षरों के साथ मात्राओं के (जब व्यंजन में
लगती हैं तब) उच्चारण पर चर्चा करेंगे।
नागरी के वर्णों
के उच्चारण के लिए संस्कृत व्याकरण का उच्चारण-प्रकरण हमारी सहायता
करता है। अगर उन छोटे सूत्रों को याद कर लें, तो यह आसान हो जाता
है। कंठ से कवर्ग, क़, ख़, ग़, ह, विसर्ग, अ, आ और अंग्रेज़ी के ऑ का उच्चारण होता है। व्यंजनों
के स्वरों से स्वतंत्र होने की पुष्टि के लिए एक छोटा-सा खेल
खेल सकते हैं। आप अगर जीभ को हाथ की अंगुलियों से पकड़ लें, तो
आप पाएंगे कि आप बहुत सारे वर्णों के उच्चारण में असमर्थ हो जाते हैं। ये वर्ण ही व्यंजन
हैं। तालु से चवर्ग, ज़, इ, ई, य और श; मूर्द्धा से टवर्ग,
र, ष और ऋ; ओठ से पवर्ग,
फ़, उ और ऊ; दाँत से तवर्ग,
ल, स और लृ; नाक से ङ,
ञ, ण, म और न; ए और ऐ कंठ तथा तालु से; व दाँत तथा ओठ से और ओ-औ कंठ और ओठ से उच्चरित होते हैं। यह कठिन लग सकता है लेकिन मुश्किल स,
ष, श, न, ण, क़, ख़, ग़, ज़, फ़ आदि के उच्चारण में
ही आती है। शेष अक्षरों का उच्चारण विशेष प्रशिक्षण या सतर्कता के बिना कोई भी कर सकता
है। ‘ऋ’ और ‘लृ’
की परंपरा संस्कृत से आती है, जो हमारी समझ में
बहुत ज़रूरी नहीं रह गई है। ‘लृ’ तो अनुपयोगी
ही है। किसी ज़माने में संस्कृतज्ञ इसे ज़रूरी मानते रहे हों, लेकिन आज यह अप्रासंगिक है। ‘स’ का उच्चारण सहज है और ग़लत उच्चारण करने वाले भी इसका सही उच्चारण करते हैं।
अतिरिक्त सतर्कता ‘ष’ और ‘श’ में आवश्यक है। मूर्द्धन्य अक्षर यानी ट-ठ-ड-ढ जहाँ से निकलते हैं,
वही मूर्धा है और ‘ष’ के
लिए आपको वहीं से प्रयास करना होता है। ‘श’ के उच्चारण के लिए च-छ-ज-झ के उच्चारण स्थान यानी तालु की सहायता लेनी पड़ती है। फिर भी ‘ष’ और ‘श’ का उच्चारण ‘श’ के रूप में ही प्रचलित
है। ‘ण’ के लिए भी ट-ठ–ड-ढ के उच्चारण स्थान की सहायता
लेनी होती है।
तालु वाले वर्ण
तालव्य कहे जाते हैं। तालव्य को तालब, तालाबे आदि कहा जाना
ग़लत है। इसी प्रकार मूर्धा वाले मूरधन, मूरधने नहीं मूर्धन्य
और दाँत वाले दन्ते नहीं, दन्त्य वर्ण कहे जाते हैं।
‘ड़’ के उच्चारण में जीभ ऊपर की ओर मुड़ जाती है। जीभ
का ऊपर की ओर मोड़कर ‘ड’ का उच्चारण ‘ड़’ का सही उच्चारण है। ‘वांटेड’
फ़िल्म में सलमान खान ने यह करके बताया है। ‘ढ़’
का उच्चारण ‘र्ह’ है। र्+ह ही ‘ढ़’ है। ढक्कन को ढ़क्कन
लिखना ग़लत है। बिन्दी वाला ‘ढ’ यानी ‘ढ़’ ‘ढ’ से अलग वर्ण है। वर्णमाला
सिखाते समय ‘ड़’ और ‘ढ़’ टवर्ग में नहीं मिलाने चाहिए। क, ख, ग, घ, ङ यानी कवर्ग के अंतिम अक्षर ‘ङ’ को बहुत-से लोग ‘ड़’ लिख रहे हैं, टवर्ग के ‘ड’
को ‘ड़’ लिख रहे हैं और टवर्ग
के ‘ढ’ को ‘ढ़’
लिख रहे हैं। ऐसे लिखना तनिक भी उचित नहीं है। यह ध्यान रखना पड़ेगा
कि कवर्ग के ‘ङ’ को ‘ड’ के दायीं ओर बगल में बिन्दु (थोड़े बड़े आकार का हो, तो ठीक रहेगा) लगाकर लिखना चाहिए, जबकि ‘ड़’
को, जिसे बड़ी ‘र’
भी कहते हैं, ‘ड’ के ठीक
नीचे बिन्दु लगाकर लिखना चाहिए। इसे विशेष रूप से बच्चों को वर्णमाला सिखाने वालों
को ध्यान रखना चाहिए। ‘ढ़’ और ‘ड़’ पर आगे विस्तार से चर्चा करेंगे।
लोकभाषाओं में
‘ष’ को ‘ख’ भी कहा जाता है। संतोष को सन्तोख कहना गाँवों में आम बात है। वर्षा से बरखा
शायद इसी कारण बना है। भोजपुरी समाज में किसी के मरने के साल भर होने को बरसी न कहकर
बरखी कहते हैं। भोजपुरी की पहली वेबसाइट अँजोरिया के संचालक सहित कई विद्वान भोजपुरी
में ‘स’ के तीनों रूपों के पक्षधर हैं।
जबकि देश, सात और धनुष को भोजपुरी में क्रमशः देस, सात और धनुस कहते हैं। अवधी में तुलसी भी ‘संकर’
का प्रयोग शंकर के लिए करते हैं। हमारी समझ से लोकभाषाओं में एकमात्र
‘स’ की परंपरा को मानना अनुचित नहीं है।
बिहार के सारण
प्रमंडल में ही ‘ण’ के ‘न’ और ‘ण’ तथा ‘ड़’ के ‘ड़’ और ‘र’ दोनों उच्चारण मिलते हैं। कुछ लोगों द्वारा ‘ण’
को ‘ड़’ कहा और लिखा जा रहा
है, जो ग़लत माना जाएगा। अक्सर लोगों को टिप्पणी को ‘टिप्पड़ी’ लिखते देखा है इंटरनेट की दुनिया में।
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