हम आज स्वर
वर्णों और मात्रायुक्त व्यंजनों के उच्चारण पर चर्चा करेंगे। आगे वचन, लिंग, विशेषण आदि पर यानी शब्दों पर विस्तार से बात करेंगे।
अ का दीर्घ
रूप आ,
इ का दीर्घ रूप ई, उ का दीर्घ रूप ऊ, ए का ऐ और ओ का औ है। दीर्घ रूपों का उच्चारण ज़्यादा समय लेकर किया जाता है।
कई बार राजनीति को राजनीत कहते इसी कारण सुना जाता है। तुलसी, रहीम, कबीर आदि के दोहों में आप बात, प्रात जैसे अकारांत (अकार के साथ समाप्त होने वाले)
शब्दों के तुक जाति, भाँति जैसे इकारांत
(इकार के साथ समाप्त होने वाले) शब्दों से मिलते
देख सकते हैं। यही बात उकारांत (जैसे राहु, केतु, हेतु, सेतु आदि) शब्दों के साथ भी आप देख सकते हैं। यानी प्रेत का तुक सेतु से मिल सकता है।
इसका कारण है— ह्रस्व मात्रा वाले वर्ण और अकार के उच्चारण में
समानता का माना जाना। दीर्घ स्वर वाले वर्ण को बोलने में अधिक समय लिया जाता है। कलि
और कली, हरि और हरी, रुपया और रूप आदि पर
ध्यान दीजिए। कलि में ‘लि’ तुरंत बोला जाता
है, जबकि कली में ‘ली’ लम्बे समय तक ईकार के उच्चारण के साथ बोलेंगे। अगर यह फर्क नहीं समझेंगे तो
भीख और भिखारी; पूजा और पुजारी; भूलना और
भुलाना; लूटना और लुटना; फुल (full),
फ़ूल (fool) और फूल (पुष्प)
आदि का उच्चारण दोषपूर्ण हो जाएगा। यही नहीं, इस
गड़बड़ी से गीतों को ठीक-ठीक धुन और संगीत के साथ भी नहीं गा
पाएंगे। सोचिए अगर ‘ऐ मेरे वतन के लोगो! तुम खूब लगा लो नारा’ की जगह ‘ए
मैरे वतन के लौगौ तूम खुब लग्गा लो नारा’ गाएँ, तो कैसा लगेगा! संगीत की शिक्षा के लिए भी उच्चारण ज्ञान
ज़रूरी है। कूल (अंग्रेज़ी का ‘ठंढा’
या हिन्दी का ‘किनारा’) और
कुल (टोटल, सब, समूचा,
सारा) दोनों में ऊकार और उकार का उच्चारण सही-सही करना होगा। कूल में ‘कू’ बोलते
समय मुँह खुलने के बाद कुछ देर खुला ही रहेगा और ज़्यादा खुल सकता है, जबकि कुल में ‘कु’ बोलते समय तुरंत
मुँह से ‘कु’ निकलेगा और अगला अक्षर उच्चारित
होगा। ईकार, ऊकार, ऐकार, औकार और अनुस्वार के उच्चारण में मुँह ज़्यादा खुल सकता है; जबकि इकार, उकार, एकार और ओकार
के उच्चारण में सामान्यतः मुँह कम खुलता है। मुन्ना को मून्ना या चिता को चीता बोलना
ठीक नहीं होगा। कवीता बोलना ग़लत होगा, कविता सही। इसी प्रकार
एकार का उच्चारण ऐकार करना ठीक नहीं होगा। बेल को बैल या थैला को थेला कहना,
गोल को गौल या मौर्य को मोर्य कहना; ग़लत होगा।
‘ऑ’ का उच्चारण करना भी ध्यान देने पर ठीक से किया जा
सकता है। आ और ओ-औ के बीच का उच्चारण ऑ को माना जा सकता है। ‘कॉल’ को काल या कौल न कहकर, कॉल
कहना चाहिए। ‘आ’ के उच्चारण में मुँह दोनों
गालों की ओर फैलता है या अगल बगल फैलता है, ‘औ’ में मुँह ऊपर नीचे (यानी नाक और ठुड्ढी की ओर)
और अगल-बगल दोनों तरफ़ फैलता है, जबकि ‘ऑ’ के उच्चारण में ‘औ’ की तरह ‘अव्’ नहीं निकलेगा। ‘ऑ’ में जीभ ऊपर
की ओर तो जाती है, लेकिन मुँह ऊपर-नीचे
नहीं खुलता। ‘कालेज’ या ‘कौलेज’ कहने की जगह ‘कॉलेज’
कहने की आदत डालनी चाहिए। इस ‘ऑ’ को अर्धचंद्र कहते हैं। हाट, होट, हौट और हॉट बोलकर आप अभ्यास कर सकते हैं और उच्चारण की भिन्नता महसूस कर सकते
हैं। यह अंग्रेज़ी से आए शब्दों में ही होता है; संस्कृत,
अरबी आदि के शब्दों में नहीं। हॉल, कॉल,
जॉन, ऑक्सीजन, डॉक्टर,
बॉल, फुटबॉल आदि इसके कुछ उदाहरण हैं। इसकी जगह
चंद्रबिन्दु का प्रयोग भी लोग कर देते हैं, लेकिन यह ठीक नहीं
है। डॉक्टर की जगह डाँक्टर कहना या लिखना सही नहीं है।
चंद्रबिन्दु
के उच्चारण में नाक की मदद ली जाती है। अँ, आँ, उँ, ऊँ आदि का उच्चारण चंद्रबिन्दु वाले शब्दों में करना
होता है। कँवल, गाँव, उँगली, ऊँचा, कूँची, भेंट, कैंची,
जोंक, भौंक आदि कुछ शब्द इसके उदाहरण हैं। कई पेंटरों को अक्सर गाँधी को ‘गॉधी’ लिखते हुए देखा जा सकता है। यह ग़लत है और इससे
बचना चाहिए। गाँव, पाँव, माँ, यहाँ आदि को गॉव, पॉव, मॉ,
यहॉ नहीं लिखना चाहिए।
अब हम दोहरे
वर्णों पर विचार करते हैं। पका और पक्का दो अलग-अलग शब्द हैं।
‘पका’ परिपक्वता, फल का तैयार होना या समय के साथ गुणों की वृद्धि को बताता है और पकना क्रिया
से जुड़ा है, जबकि ‘पक्का’ निश्चय को या किसी वस्तु आदि की पूर्व स्थिति या कच्चेपन के विपरीत या ऊँची
या बाद की अवस्था को बताता है। पक्का में क् + क है, जिसके उच्चारण में दो बार ‘क’ बोलना
होता है लेकिन ध्यान रहे ‘कक’ नहीं बोलना
है। बचे और बच्चे, मज़ा और मज्जा, कटा और
कट्टा, पता और पत्ता, हम और हम्म,
गदा और गद्दा आदि में भेद करने के लिए दोहरे वर्णों पर ध्यान देना होगा।
भोजपुरी भाषी ‘बत्ता देम’ और ‘बता देम’ का फर्क समझ सकते हैं।
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