सोमवार, 6 जून 2016
कठिन नहीं है शुद्ध हिन्दी - 6
5:23 pm
अक्षरों पर
चल रही चर्चा अभी ज़ारी है। इस सिलसिले में आज हम ड, ड़, ढ, ढ आदि पर नज़र डालेंगे।
पहले भी यह
बात आई थी कि ‘ड़’ और ‘ढ़’ मुख्य वर्णमाला में न आकर बाद में जुड़ते हैं। पहली
बात हम कहना चाहते हैं कि बिन्दी वाले ‘ड’ यानी ‘ड़’, बिन्दी वाले ‘ढ’ यानी ‘ढ़’, ‘ङ’, ‘ञ’ और ‘ण’ से कोई शब्द शुरू ही नहीं होता। इसलिए शब्द की शुरूआत
में ‘ड़’ या ‘ढ़’
लगाना ठीक नहीं है। बहुत सारे लोग, लेखक,
अच्छे पढ़े-लिखे लोग भी यह ग़लती करते देखे जाते
हैं। यह परंपरा ज़्यादा पुरानी नहीं लगती, यह नई परंपरा ही लगती
है, जो कुछ दशक पुरानी हो सकती है। अंग्रेज़ी या यूरोपीय भाषाओं
और संस्कृत के शब्दों में ड़, ढ़ आते ही नहीं हैं। जैसे बैड़,
कामरेड़, एड़ल्ट, एड़जस्ट,
कार्ड़ आदि ग़लत हैं, क्योंकि उच्चारण के लिहाज
से इनमें ‘ड’ आता है, ‘ड़’ नहीं। आप ‘कार्ड़’ का तो उच्चारण भी ठीक से नहीं कर पाएँगे। शुद्ध रूप बैड, कामरेड, एडल्ट, एडजस्ट,
कार्ड हैं। ‘र्’ (आधा ‘र’) के बाद तो ‘ड़’ या ‘ढ़’ आते ही नहीं कभी। आप ‘ड’ बोलते हैं, तो ‘ड़’ लिखना और ‘ड़’ बोलते हैं तो ‘ड’ लिखना,
दोनों ही ग़लत है। गुड (अंग्रेज़ी का अच्छा),
गुर (तरीका, कौशल)
और गुड़ (गन्ने या चुकंदर से बनी चीज़,
जो मीठी होती है) का फर्क आप जानते हैं। आप अगर
अंग्रेज़ी के सही उच्चारण देखें, तो आप पाएंगे कि वहाँ ‘ड़’ है ही नहीं। ‘ढ़’ की तो बात छोड़ ही दें, क्योंकि वहाँ ‘ढ’ ही नहीं है। ‘ड़’ और ‘ढ़’ के लिए अंग्रेज़ी में क्रमशः
‘d’ और ‘rh’ लिखा जाता है।
सवाल ड़-ड और ढ-ढ़ के सही प्रयोग का है। यह आसान है। बस इन बातों
का ध्यान रखें। ‘ड़’ और ‘ढ़’ कभी संयुक्ताक्षर में नहीं आते (या कहें कि ‘ड़’ या ‘ढ़’ न तो किसी आधे अक्षर के बाद आते हैं, न इनका आधे रूप का प्रयोग होता है), जैसे हड्ड़ी या गड्ढ़ा,
दोनों ग़लत हैं। इनके शुद्ध रूप हड्डी और गड्ढा हैं। ढ़ेर, ढ़क्कन, ढ़ोल, ढ़कोसला,
ढ़ोना, ढ़ाबा, ड़ब्बा,
ड़गर, ड़ंका, ड़ायरी आदि
सारे शब्द अशुद्ध हैं। इन सबमें पहला अक्षर ‘ढ’ या ‘ड’ होना चाहिए, क्योंकि ‘ड़’ या ‘ढ़’ से हिन्दी पट्टी में कोई शब्द शुरू ही नहीं होता।
सही रूप ढेर, ढोल, ढक्कन, ढाबा, ढकोसला, डब्बा, डंका, डायरी आदि हैं।
एक आसान-सा नियम आप यह भी मान सकते हैं कि अनुस्वार के बाद ड़ या ढ़ का प्रयोग नहीं
कर सकते, जैसे कांड, दंड, ठंढ आदि को कांड़, दंड़, ठंढ़ नहीं
लिख सकते। अनुस्वार के बाद ‘ड़’ या ‘ढ़’ का उच्चारण करना भी असंभव-सा
है। हाँ, चंद्रबिन्दु के बाद ‘ड़’
या ‘ढ़’ का प्रयोग कर सकते
हैं। संस्कृत पढते-लिखते समय भी हम ‘ड़’
या ‘ढ़’ का प्रयोग नहीं करते।
इनके उच्चारण पर हम चर्चा कर चुके हैं। यहाँ ‘ड़’ और ‘ढ़’ कब-कब नहीं लिखते, यह बताया गया है। फिर इनका प्रयोग करेंगे
कहाँ! शब्द के बीच में या अंत में इनका प्रयोग कर सकते हैं,
वह भी बिना चिंता किए। बीच या अंत के प्रयोग में कुछ शब्दों को अपवादस्वरूप
छोड़ दें, तो यह छूट काफी हद तक है कि हम ‘ढ’ या ‘ढ़’ दोनों में से किसी का प्रयोग कर सकते हैं। ‘ड’
या ‘ड़’ के मामले में यह
छूट नहीं है। एक वाक्य में कहें तो जहाँ आप उच्चारण ‘ड’
का करते हैं, वहाँ ‘ड’
लिखें, जहाँ ‘ड़’
का करते हैं, वहाँ ‘ड़’
लिखें। ‘ढ’ बोलते हों,
तो ‘ढ’ लिखें और ‘ढ़’ बोलते हों तो ‘ढ़’ लिखें। जैसे झंडा, भाड़ा, गाड़ी,
गार्ड, कीड़ा, गुड्डी,
गड्ढा, आढ़त, गड़बड़ आदि
उदाहरण के तौर पर आप देख सकते हैं। कई शब्दों के दो रूप प्रचलित हैं, खासकर उन शब्दों के जिनमें ‘ढ’ और ‘ढ़’ बीच में या अंत में आए।
पढना-पढ़ना, गढ-गढ़,
चढाई-चढ़ाई, बाढ-बाढ़, गाढी-गाढ़ी आदि ऐसे कुछ उदाहरण
हैं। दोनों रूपों वाले शब्द प्रायः क्रियाओं से जुड़े होते हैं। हाँ, उच्चारण की बात करें, तो पढना और पढ़ना में अंतर है।
पढना को padhna और पढ़ना को parhna से समझ
सकते हैं। ढाँढस, ढिंढोरा, ढिंढोरची,
निढाल आदि कुछ शब्द ऐसे हैं, जिनमें ‘ढ’ बीच में आता है। इनमें ‘ढ’
की जगह ‘ढ़’ का प्रयोग ठीक
नहीं माना जाएगा।
मर्डर, हार्ड, बोर्ड, डोमेस्टिक,
डस्टर, एडमिशन, डर्टी,
डांस, डैश, डल, एडवोकेट, वर्ड, संस्कृत में गरुड,
फ़्रांसीसी में मैडम आदि कुछ शब्दों में ‘ड’
का प्रयोग हुआ है। खास बात यह है कि उच्चारण तो लोग सही करते हैं,
लेकिन लिखते ग़लत हैं। संस्कृत में गरुड और क्रीडा लिखते हैं,
जबकि हिन्दी में गरुड़ और क्रीड़ा। घबराना और घबड़ाना दोनों रूप सही
माने जाते हैं, यह भी बताते चलें।
अस्मुरारी नंदन
मिश्र जी ने बताया कि नियम यह है कि दो स्वरों के बीच में आने पर उच्चारण ‘ड़’ और ‘ढ़’ होता है! संयुक्त होने पर यानी किसी भी एक तरफ स्वर के
नहीं होने पर ‘ड’ और ‘ढ’ होता है। बूढ़ा-बुड्ढा,
गुड्डी- गुड़िया!
यह बहुत हद
तक सही व्याख्या प्रस्तुत करता है, लेकिन यूरोपीय और संस्कृत
शब्दों पर लागू नहीं होता। निढाल, निडर, अडिग आदि में भी यह नियम काम नहीं करता। यह कहा जा सकता है कि ध्यान देने पर
ही ठीक-ठीक प्रयोग करने की आदत डाली जा सकती है। ‘ढ़’ का प्रयोग वहीं करें जहाँ र्ह (र् +ह) का उच्चारण होता हो।
’ड़’ वाली कुछ क्रियाएँ अकड़ना, लड़ना, सड़ना, झगड़ना, पड़ना, ताड़ना, फाड़ना,
गाड़ना, छोड़ना, जोड़ना,
झाड़ना, निथाड़ना, निचोड़ना,
तोड़ना, फोड़ना, छिड़ना,
छिड़कना, छेड़ना, बड़बड़ाना,
खड़ा होना, उखड़ना, तड़पना,
फड़फड़ाना आदि हैं। क्रियाओं में ‘ड’ की जगह ‘ड़’ ही मिलता है अक्सर।
शायद ही कुछ क्रियाओं में ‘ड’ हो। ‘ढ़’ वाली कुछ क्रियाएँ काढ़ना, गढ़ना, चढ़ना, चिढ़ना, पढ़ना, बढ़ना, मढ़ना आदि हैं।
जब एक साथ ‘र’ और ‘ड़’ आते हैं, तो पहले ‘र’, फिर ‘ड़’ होता है; ऐसा अधिकांश स्थितियों में होता है। करोड़, रोड़ा,
अरोड़ा, रोड़ी, मरोड़,
गरुड़ आदि उदाहरण के तौर पर देखे जा सकते हैं।
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कठिन नहीं है शुद्ध हिन्दी - 5
5:22 pm
हम आज स्वर
वर्णों और मात्रायुक्त व्यंजनों के उच्चारण पर चर्चा करेंगे। आगे वचन, लिंग, विशेषण आदि पर यानी शब्दों पर विस्तार से बात करेंगे।
अ का दीर्घ
रूप आ,
इ का दीर्घ रूप ई, उ का दीर्घ रूप ऊ, ए का ऐ और ओ का औ है। दीर्घ रूपों का उच्चारण ज़्यादा समय लेकर किया जाता है।
कई बार राजनीति को राजनीत कहते इसी कारण सुना जाता है। तुलसी, रहीम, कबीर आदि के दोहों में आप बात, प्रात जैसे अकारांत (अकार के साथ समाप्त होने वाले)
शब्दों के तुक जाति, भाँति जैसे इकारांत
(इकार के साथ समाप्त होने वाले) शब्दों से मिलते
देख सकते हैं। यही बात उकारांत (जैसे राहु, केतु, हेतु, सेतु आदि) शब्दों के साथ भी आप देख सकते हैं। यानी प्रेत का तुक सेतु से मिल सकता है।
इसका कारण है— ह्रस्व मात्रा वाले वर्ण और अकार के उच्चारण में
समानता का माना जाना। दीर्घ स्वर वाले वर्ण को बोलने में अधिक समय लिया जाता है। कलि
और कली, हरि और हरी, रुपया और रूप आदि पर
ध्यान दीजिए। कलि में ‘लि’ तुरंत बोला जाता
है, जबकि कली में ‘ली’ लम्बे समय तक ईकार के उच्चारण के साथ बोलेंगे। अगर यह फर्क नहीं समझेंगे तो
भीख और भिखारी; पूजा और पुजारी; भूलना और
भुलाना; लूटना और लुटना; फुल (full),
फ़ूल (fool) और फूल (पुष्प)
आदि का उच्चारण दोषपूर्ण हो जाएगा। यही नहीं, इस
गड़बड़ी से गीतों को ठीक-ठीक धुन और संगीत के साथ भी नहीं गा
पाएंगे। सोचिए अगर ‘ऐ मेरे वतन के लोगो! तुम खूब लगा लो नारा’ की जगह ‘ए
मैरे वतन के लौगौ तूम खुब लग्गा लो नारा’ गाएँ, तो कैसा लगेगा! संगीत की शिक्षा के लिए भी उच्चारण ज्ञान
ज़रूरी है। कूल (अंग्रेज़ी का ‘ठंढा’
या हिन्दी का ‘किनारा’) और
कुल (टोटल, सब, समूचा,
सारा) दोनों में ऊकार और उकार का उच्चारण सही-सही करना होगा। कूल में ‘कू’ बोलते
समय मुँह खुलने के बाद कुछ देर खुला ही रहेगा और ज़्यादा खुल सकता है, जबकि कुल में ‘कु’ बोलते समय तुरंत
मुँह से ‘कु’ निकलेगा और अगला अक्षर उच्चारित
होगा। ईकार, ऊकार, ऐकार, औकार और अनुस्वार के उच्चारण में मुँह ज़्यादा खुल सकता है; जबकि इकार, उकार, एकार और ओकार
के उच्चारण में सामान्यतः मुँह कम खुलता है। मुन्ना को मून्ना या चिता को चीता बोलना
ठीक नहीं होगा। कवीता बोलना ग़लत होगा, कविता सही। इसी प्रकार
एकार का उच्चारण ऐकार करना ठीक नहीं होगा। बेल को बैल या थैला को थेला कहना,
गोल को गौल या मौर्य को मोर्य कहना; ग़लत होगा।
‘ऑ’ का उच्चारण करना भी ध्यान देने पर ठीक से किया जा
सकता है। आ और ओ-औ के बीच का उच्चारण ऑ को माना जा सकता है। ‘कॉल’ को काल या कौल न कहकर, कॉल
कहना चाहिए। ‘आ’ के उच्चारण में मुँह दोनों
गालों की ओर फैलता है या अगल बगल फैलता है, ‘औ’ में मुँह ऊपर नीचे (यानी नाक और ठुड्ढी की ओर)
और अगल-बगल दोनों तरफ़ फैलता है, जबकि ‘ऑ’ के उच्चारण में ‘औ’ की तरह ‘अव्’ नहीं निकलेगा। ‘ऑ’ में जीभ ऊपर
की ओर तो जाती है, लेकिन मुँह ऊपर-नीचे
नहीं खुलता। ‘कालेज’ या ‘कौलेज’ कहने की जगह ‘कॉलेज’
कहने की आदत डालनी चाहिए। इस ‘ऑ’ को अर्धचंद्र कहते हैं। हाट, होट, हौट और हॉट बोलकर आप अभ्यास कर सकते हैं और उच्चारण की भिन्नता महसूस कर सकते
हैं। यह अंग्रेज़ी से आए शब्दों में ही होता है; संस्कृत,
अरबी आदि के शब्दों में नहीं। हॉल, कॉल,
जॉन, ऑक्सीजन, डॉक्टर,
बॉल, फुटबॉल आदि इसके कुछ उदाहरण हैं। इसकी जगह
चंद्रबिन्दु का प्रयोग भी लोग कर देते हैं, लेकिन यह ठीक नहीं
है। डॉक्टर की जगह डाँक्टर कहना या लिखना सही नहीं है।
चंद्रबिन्दु
के उच्चारण में नाक की मदद ली जाती है। अँ, आँ, उँ, ऊँ आदि का उच्चारण चंद्रबिन्दु वाले शब्दों में करना
होता है। कँवल, गाँव, उँगली, ऊँचा, कूँची, भेंट, कैंची,
जोंक, भौंक आदि कुछ शब्द इसके उदाहरण हैं। कई पेंटरों को अक्सर गाँधी को ‘गॉधी’ लिखते हुए देखा जा सकता है। यह ग़लत है और इससे
बचना चाहिए। गाँव, पाँव, माँ, यहाँ आदि को गॉव, पॉव, मॉ,
यहॉ नहीं लिखना चाहिए।
अब हम दोहरे
वर्णों पर विचार करते हैं। पका और पक्का दो अलग-अलग शब्द हैं।
‘पका’ परिपक्वता, फल का तैयार होना या समय के साथ गुणों की वृद्धि को बताता है और पकना क्रिया
से जुड़ा है, जबकि ‘पक्का’ निश्चय को या किसी वस्तु आदि की पूर्व स्थिति या कच्चेपन के विपरीत या ऊँची
या बाद की अवस्था को बताता है। पक्का में क् + क है, जिसके उच्चारण में दो बार ‘क’ बोलना
होता है लेकिन ध्यान रहे ‘कक’ नहीं बोलना
है। बचे और बच्चे, मज़ा और मज्जा, कटा और
कट्टा, पता और पत्ता, हम और हम्म,
गदा और गद्दा आदि में भेद करने के लिए दोहरे वर्णों पर ध्यान देना होगा।
भोजपुरी भाषी ‘बत्ता देम’ और ‘बता देम’ का फर्क समझ सकते हैं।
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कठिन नहीं है शुद्ध हिन्दी - 4
5:21 pm
पिछले भाग में
हम उच्चारण पर चर्चा कर रहे थे। पहले हिन्दी के संयुक्ताक्षरों पर विचार करते हैं।
फिर उर्दू, जो स्वतंत्र रूप में कोई भाषा ही नहीं है,
के अक्षरों पर भी आएंगे।
क्ष, त्र, ज्ञ, स्र और श्र पर विचार
करते हैं।
क्ष = क् + ष, त्र = त् + र, ज्ञ = ज् + ञ, स्र = स् + र, श्र = श् + र
‘क्ष’ का उच्चारण ‘अक्छ’
करना ग़लत है। इसके उच्चारण में पहले ‘क्’,
फिर ‘ष’ आता है। जैसे ‘क्षेत्र’ को ‘छेत्र’ न कहकर ‘क्-षेत्र’ कहेंगे। ‘क्ष’ का प्रचलित उच्चारण
‘क्छ’ है। ‘त्र’
में कोई समस्या नहीं है। ‘ज्ञ’ का उच्चारण ‘ग्य’, ‘ग्यँ’,
‘द्न’, ‘द्यँ’, ‘ज्यँ’,
‘ज्न’ आदि बोलकर किया जाता है। महाराष्ट्र में
विद्नान या विद्याँन कहा जाता है विज्ञान को। आर्यसमाजी ‘ज्यँ’
कहते हैं, लेकिन सामान्य उच्चारण ‘ग्यँ’ है। इसका शुद्ध उच्चारण समय के साथ छूटता चला गया।
सामान्यतया इसका उच्चारण ‘ग्य’ ही हो रहा
है। चाहें तो हम इसका उच्चारण ‘ज्यँ’ जैसा
कर सकते हैं, जो ‘ज्’ और ‘ञ’ के सम्मिलित रूप के करीब
है। ‘मिस्र’ देश का नाम है, जिसमें ‘स’ के साथ ‘र’ है, जबकि ‘मिश्र’ जातिसूचक शब्द है, जहाँ
‘श’ और ‘र’
हैं। अंग्रेज़ी में ‘क्ष’ के लिए ‘ksh’, ‘त्र’ के ‘tr’
लिए और ‘ज्ञ’ के लिए ‘gy’,
‘jn’, ‘jyn’ आदि का प्रयोग हम सब करते हैं। ‘ज्ञ’
के ‘jn’ का प्रयोग ठीक रहेगा। ‘क्ष’ के लिए ‘x’ भी लिखा जाता है।
अब हम ‘ऋ’ और ‘र’ पर आते हैं। ‘ऋ’ को किसी व्यंजन
में लगाने पर व्यंजन के नीचे रोमन अक्षर ‘सी’ (c) जैसा संकेत दिखता है। इसका उच्चारण ‘र’ के रूप में मध्यप्रदेश और राजस्थान आदि में हो रहा है। ग्रह और गृह दोनों को
ग्रह पढ़ना नागरी और हिन्दी की वैज्ञानिकता के विरुद्ध है। गृह को ग्रिह जैसा पढा जाता
है और यह ठीक भी है, क्योंकि ‘ऋ’
का उच्चारण भी खत्म सा हो चला है। संस्कृति और दृष्टि को संस्क्रति और
द्रष्टि न पढ या लिख कर संस्कृति और दृष्टि लिखा जाए और संस्क्रिति जैसा पढा जाय। गृह
घर है और ग्रह खगोलीय पिंड; इस अंतर को बना और बचा कर रखना ठीक
होगा। ऋकार को महाराष्ट्र और उड़ीसा में ‘रु’ भी पढने की परंपरा है; जैसे - कृति
को क्रुति। हरियाणा के एक लेखक की किताब में हमने ऋकार का पूरा लोप देखा है। पूरी किताब
में कहीं ऋकार नहीं लगा है, जैसे कृति को कति, सृष्टि को सष्टि। इसे भी उचित नहीं मान सकते। अंग्रेज़ी में तो प्रायः ‘संस्कृत’ को ‘Sanskrut’ लिखते देखा
जा सकता है। ‘ऋ’ और ‘रि’ में उच्चारण की दृष्टि से कोई भेद नहीं है। हम रि
या ri की ही अनुशंसा करेंगे। यह ज़रूरी बात है कि ध्वनियों में
अनेक परिवर्तन हो गए हैं, फिर भी लिपि में परंपरा का पालन किया
जा रहा है।
स्कूल, स्त्री, स्थान, श्लोक, स्मृति, स्थापना, स्कंद,
स्पष्ट, स्मार्ट, स्काई और
स्टूडेंट को क्रमशः इस्कूल, इस्त्री, अस्थान,
अश्लोक, इस्मृति, अस्थापना,
अस्कंद, अस्पष्ट, एस्मार्ट,
एस्काई और एस्टुडेंट पढने का प्रचलन बिहार में तो खूब है। ऐसे शब्दों
का ग़लत उच्चारण करने वाले को श्याम, स्वामी, स्वाति, क्या, ख्वाब, त्याग आदि बोलकर देखना चाहिए कि वे सीधे आधे अक्षर का उच्चारण तो करते ही हैं।
क्या को अक्या और स्वामी को इस्वामी तो कहते नहीं हैं। ध्यान देने पर वे सही उच्चारण
करने में कठिनाई महसूस नहीं करेंगे।
उर्दू में पाँच
या छह प्रकार के ‘ज’ की परंपरा है।
वहाँ सबके उच्चारण में सूक्ष्म अंतर होता होगा और यह सिखाया जाता होगा। यहाँ हम नुक्ते
वाले पाँच अक्षरों की बात करेंगे। ‘क़’ का उच्चारण ‘क’ और ‘ख’ के बीच होता है। जीभ को थोड़ा ऊपर ले जाकर हल्का सा
मोड़ें, तो नुक्ते वाले अक्षर ठीक-ठीक उच्चारित
हो सकते हैं। ख़, ग़, ज़ और फ़ में ह्ह्ह्ह...
जैसी आवाज़ निकलती है। अंग्रेज़ी में ज़ और फ़ के उच्चारण मौज़ूद हैं।
full को फुल, soft को सॉफ़्ट, film को फ़िल्म, bridge को ब्रिज़, freeze को फ़्रीज़ कहते हैं। jump को जम्प कहेंगे, न कि ज़ंप। कई लोग एलकेजी को एलकेज़ी कहते मिलते हैं, यह ग़लत उच्चारण है। अंग्रेज़ी में ‘क’ के लिए ‘k’, ‘क़’ के लिए ‘q’,
‘फ’ के लिए ‘ph’, ‘फ़’
के लिए ‘f’, ‘ज’ के लिए ‘j’
और ‘ज़’ के लिए ‘z’
इस्तेमाल करते हैं। हालांकि अंग्रेज़ी के शब्दों में क़, ख़, ग़ उच्चारित नहीं होते हैं।
संस्कृत में
शब्द के अंत में अकार होने पर ‘अ’ का उच्चारण
करते हैं, लेकिन हिन्दी, भोजपुरी,
उर्दू आदि में यह परंपरा सामान्य रूप से नहीं है। जैसे हिन्दी में आकाश
को आकाश् ही पढ़ते हैं, जबकि संस्कृत में एव को ‘एव्’ नहीं ‘एव’ (अकार के साथ) पढ़ते हैं। संस्कृत, भोजपुरी, हिन्दी आदि में एक अवग्रह चिन्ह (ऽ) भी है,
जो s की तरह लिखा जाता है।
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कठिन नहीं है शुद्ध हिन्दी - 3
5:20 pm
किस वर्ण का
उच्चारण कैसे करें, यह एक महत्त्वपूर्ण सवाल है। अक्सर हम
देखते हैं कि व्यक्ति अपने क्षेत्रीय उच्चारण से इस कदर घिरा या बँधा रहता है कि उच्चारण
का कोई स्पष्ट मानक रूप सामने नहीं आ पाता। कुछ वर्ण तो ऐसे हैं, जिनका उच्चारण अब समाप्ति की ओर है, क्योंकि न तो कोई
सिखाने वाला मिलता है, न कोई इतना सीखने के लिए किसी योग्य प्रशिक्षक
की तलाश करता है। उच्चारण से यह पता लगता है कि व्यक्ति भाषा को लेकर कितना सजग है।
बिहार में इसे लेकर कोई गंभीरता हमें नहीं मिलती। हिन्दी के शिक्षक भी लापरवाही से
पेश आते हैं। हम यहाँ व्यंजन, स्वर, अंग्रेज़ी
और अरबी से लिए गए अक्षरों के साथ मात्राओं के (जब व्यंजन में
लगती हैं तब) उच्चारण पर चर्चा करेंगे।
नागरी के वर्णों
के उच्चारण के लिए संस्कृत व्याकरण का उच्चारण-प्रकरण हमारी सहायता
करता है। अगर उन छोटे सूत्रों को याद कर लें, तो यह आसान हो जाता
है। कंठ से कवर्ग, क़, ख़, ग़, ह, विसर्ग, अ, आ और अंग्रेज़ी के ऑ का उच्चारण होता है। व्यंजनों
के स्वरों से स्वतंत्र होने की पुष्टि के लिए एक छोटा-सा खेल
खेल सकते हैं। आप अगर जीभ को हाथ की अंगुलियों से पकड़ लें, तो
आप पाएंगे कि आप बहुत सारे वर्णों के उच्चारण में असमर्थ हो जाते हैं। ये वर्ण ही व्यंजन
हैं। तालु से चवर्ग, ज़, इ, ई, य और श; मूर्द्धा से टवर्ग,
र, ष और ऋ; ओठ से पवर्ग,
फ़, उ और ऊ; दाँत से तवर्ग,
ल, स और लृ; नाक से ङ,
ञ, ण, म और न; ए और ऐ कंठ तथा तालु से; व दाँत तथा ओठ से और ओ-औ कंठ और ओठ से उच्चरित होते हैं। यह कठिन लग सकता है लेकिन मुश्किल स,
ष, श, न, ण, क़, ख़, ग़, ज़, फ़ आदि के उच्चारण में
ही आती है। शेष अक्षरों का उच्चारण विशेष प्रशिक्षण या सतर्कता के बिना कोई भी कर सकता
है। ‘ऋ’ और ‘लृ’
की परंपरा संस्कृत से आती है, जो हमारी समझ में
बहुत ज़रूरी नहीं रह गई है। ‘लृ’ तो अनुपयोगी
ही है। किसी ज़माने में संस्कृतज्ञ इसे ज़रूरी मानते रहे हों, लेकिन आज यह अप्रासंगिक है। ‘स’ का उच्चारण सहज है और ग़लत उच्चारण करने वाले भी इसका सही उच्चारण करते हैं।
अतिरिक्त सतर्कता ‘ष’ और ‘श’ में आवश्यक है। मूर्द्धन्य अक्षर यानी ट-ठ-ड-ढ जहाँ से निकलते हैं,
वही मूर्धा है और ‘ष’ के
लिए आपको वहीं से प्रयास करना होता है। ‘श’ के उच्चारण के लिए च-छ-ज-झ के उच्चारण स्थान यानी तालु की सहायता लेनी पड़ती है। फिर भी ‘ष’ और ‘श’ का उच्चारण ‘श’ के रूप में ही प्रचलित
है। ‘ण’ के लिए भी ट-ठ–ड-ढ के उच्चारण स्थान की सहायता
लेनी होती है।
तालु वाले वर्ण
तालव्य कहे जाते हैं। तालव्य को तालब, तालाबे आदि कहा जाना
ग़लत है। इसी प्रकार मूर्धा वाले मूरधन, मूरधने नहीं मूर्धन्य
और दाँत वाले दन्ते नहीं, दन्त्य वर्ण कहे जाते हैं।
‘ड़’ के उच्चारण में जीभ ऊपर की ओर मुड़ जाती है। जीभ
का ऊपर की ओर मोड़कर ‘ड’ का उच्चारण ‘ड़’ का सही उच्चारण है। ‘वांटेड’
फ़िल्म में सलमान खान ने यह करके बताया है। ‘ढ़’
का उच्चारण ‘र्ह’ है। र्+ह ही ‘ढ़’ है। ढक्कन को ढ़क्कन
लिखना ग़लत है। बिन्दी वाला ‘ढ’ यानी ‘ढ़’ ‘ढ’ से अलग वर्ण है। वर्णमाला
सिखाते समय ‘ड़’ और ‘ढ़’ टवर्ग में नहीं मिलाने चाहिए। क, ख, ग, घ, ङ यानी कवर्ग के अंतिम अक्षर ‘ङ’ को बहुत-से लोग ‘ड़’ लिख रहे हैं, टवर्ग के ‘ड’
को ‘ड़’ लिख रहे हैं और टवर्ग
के ‘ढ’ को ‘ढ़’
लिख रहे हैं। ऐसे लिखना तनिक भी उचित नहीं है। यह ध्यान रखना पड़ेगा
कि कवर्ग के ‘ङ’ को ‘ड’ के दायीं ओर बगल में बिन्दु (थोड़े बड़े आकार का हो, तो ठीक रहेगा) लगाकर लिखना चाहिए, जबकि ‘ड़’
को, जिसे बड़ी ‘र’
भी कहते हैं, ‘ड’ के ठीक
नीचे बिन्दु लगाकर लिखना चाहिए। इसे विशेष रूप से बच्चों को वर्णमाला सिखाने वालों
को ध्यान रखना चाहिए। ‘ढ़’ और ‘ड़’ पर आगे विस्तार से चर्चा करेंगे।
लोकभाषाओं में
‘ष’ को ‘ख’ भी कहा जाता है। संतोष को सन्तोख कहना गाँवों में आम बात है। वर्षा से बरखा
शायद इसी कारण बना है। भोजपुरी समाज में किसी के मरने के साल भर होने को बरसी न कहकर
बरखी कहते हैं। भोजपुरी की पहली वेबसाइट अँजोरिया के संचालक सहित कई विद्वान भोजपुरी
में ‘स’ के तीनों रूपों के पक्षधर हैं।
जबकि देश, सात और धनुष को भोजपुरी में क्रमशः देस, सात और धनुस कहते हैं। अवधी में तुलसी भी ‘संकर’
का प्रयोग शंकर के लिए करते हैं। हमारी समझ से लोकभाषाओं में एकमात्र
‘स’ की परंपरा को मानना अनुचित नहीं है।
बिहार के सारण
प्रमंडल में ही ‘ण’ के ‘न’ और ‘ण’ तथा ‘ड़’ के ‘ड़’ और ‘र’ दोनों उच्चारण मिलते हैं। कुछ लोगों द्वारा ‘ण’
को ‘ड़’ कहा और लिखा जा रहा
है, जो ग़लत माना जाएगा। अक्सर लोगों को टिप्पणी को ‘टिप्पड़ी’ लिखते देखा है इंटरनेट की दुनिया में।
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कठिन नहीं है शुद्ध हिन्दी - 2
5:19 pm
लिपि और लिखे
हुए को उसी रूप में पढ़ने की परंपरा के साथ शब्दों के उच्चारण पर आज हम चर्चा करेंगे।
हिन्दी में जो लिखते हैं, वही पढ़ते हैं। हिन्दी में अंग्रेज़ी
की तरह कोई अक्षर अनुच्चरित नहीं रह जाता। अंग्रेज़ी में ‘नाइफ़’,
‘साइकोलॉजी’, ‘डेट’, ‘काम’
जैसे बहुत सारे शब्द ऐसे उदाहरण हैं। दुनिया की समृद्ध भाषा फ़्रांसीसी
की बात करें, तो इसमें Mot को ‘मो’, Faux को ‘फो’,
Parlent और Parles दोनों को ‘पार्ल’, Maneger को ‘माँजे’,
तो Gourmand को ‘गुरमाँ’
पढ़ते हैं। अंग्रेज़ी से हम परिचित ही हैं। एक उदाहरण यहाँ हम दे रहे
हैं। 'ई' को अंग्रेज़ी में कम से कम नौ
प्रकार से व्यक्त करते हैं। e, ee, ea, ei, ey, eo, i, ie और
uay; ये सिर्फ़ एक ईकार के लिए हैं, जिनके उदाहरण
क्रमशः be, bee, sea, receive, key, people, machine, believe और kuay हैं। भारतीय भाषाओं की बात करें, तो बाँग्ला में ‘भव्य’ लिखते हैं,
‘भोव्ब’ पढ़ते-बोलते हैं;
‘लक्ष्मी’ लिखते हैं, ‘लोक्खी’
बोलते हैं। मैथिली की ऑनलाइन पत्रिका विदेह के संपादक डॉ गजेन्द्र ठाकुर
ने कहीं लिखा था कि हिन्दी से भी वैज्ञानिक उच्चारण मैथिली का है। उन्होंने
‘साठि’ शब्द का उदाहरण दिया है, जिसे मैथिली में ‘साइठ’ पढ़ते हैं।
उनका कहना है कि इकार की मात्रा व्यंजन के पहले लगती है और मैथिली में उसका उच्चारण
भी पहले होता है। लेकिन ‘सिनेमा’ को
‘इसनेमा’ नहीं पढ़ा जाता मैथिली में! इस प्रकार उनका दावा हर जगह सही नहीं हो पाता और सर्वमान्य सामान्य नियमों
को जान या समझ पाना मुश्किल हो जाता है। तमिल भाषा में क ख ग घ ङ यानी कवर्ग में दूसरे,
तीसरे और चौथे वर्ण यानी ‘ख’, ‘ग’ और ‘घ’ हैं ही नहीं। वहाँ सभी वर्गों के दूसरे, तीसरे और चौथे वर्ण लिपि में नहीं हैं। गाँधी के लिए काँधी लिखना पड़ेगा उसमें।
शुद्ध अंग्रेज़ी के अनुसार ख, घ, छ,
झ, ठ, ढ, ड़, ढ़, त, ध, भ, ष, ण, ङ, ञ, क़, ख़, ग़ जैसे अक्षर बोले ही
नहीं जा सकते। प्रमाण के लिए आप एबीसीडी के 26 वर्णों का उच्चारण
करके देख सकते हैं। वहाँ भारत के लिए ‘बारट’, तुम के लिए ‘टुम’, झगड़े के लिए
‘जगडे’ कहना पड़ता है। हमलोग यहाँ भारत
में अपनी वर्णमाला के कारण इन बाकी अक्षरों का उच्चारण भी कर लेते हैं। हम लोग अधिकतर
एबीसीडी में क्यू को किउ, वी को भी और डब्ल्यू को डब्लू कहते
हैं, जो ग़लत माना जाएगा। रूसी में ‘ह’
नहीं है, वहाँ ‘ह’
के स्थान पर ‘ख’ लिखते हैं,
जैसे नेहरू को नेखरू।
भाषाशास्त्र
में जब भी लिपि और उच्चारण की परीक्षा होगी, ऐसे परिणाम मिलेंगे।
ये हमारे लिए श्रेष्ठताबोध के कारण नहीं बनने चाहिए। भाषा, लिपि
और वर्ण भौगोलिक कारणों से भी प्रभावित होते हैं। हमें इनको हीनताबोध या श्रेष्ठताबोध
से नहीं जोड़ना चाहिए। छपाई के लिहाज से अंग्रेज़ी या रोमन लिपि की भाषाएँ हिन्दी,
संस्कृत आदि से बेहतर हैं। रोमन में सारे अक्षर प्रायः अलग-अलग होते हैं, जबकि हिन्दी में साथ और एक दूसरे से लगे
हुए। नागरी में हर शब्द या अक्षर के ऊपर एक रेखा खींची जाती है, जिसे शिरोरेखा कहते हैं। इसकी परंपरा अंग्रेज़ी में नहीं है। हिन्दी में मात्राएँ
भी कई बार व्यंजन से पहले लग जाती हैं। व्यक्ति में ‘क्त’
के पहले इकार की मात्रा लिखी या छापी जाती है।
लिपियों या
भाषाओं की तुलना का उद्देश्य बस नागरी और हिन्दी की विशेषता दिखाना है, न कि किसी श्रेष्ठताबोध का प्रदर्शन करना, जो अक्सर संस्कृतप्रेमियों
में घर बना लेता है।
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कठिन नहीं है शुद्ध हिन्दी - 1
5:17 pm
मनुष्य अन्य
जीवों से दो ही बातों में भिन्न है। पहला, उसके पास श्रम करने
के साथ नये औजार बना सकने की क्षमता है और दूसरा, उसके पास भाषा
है। दुनिया की हज़ारों भाषाओं में एक है— हिन्दी। हिन्दी की लिपि
नागरी है, जिसे देवनागरी भी कहा जाता है। नागरी लिपि हिन्दी के
साथ-साथ संस्कृत, नेपाली, मराठी, भोजपुरी, मैथिली,
मगही सहित कई भाषाओं के लिए इस्तेमाल की जाती है। भोजपुरी की पुरानी
लिपि कैथी थी, जो आज की गुजराती लिपि से काफी हद तक मेल खाती
है। लिपि एक खास अक्षर समूह से जानी जाती है, जिसके अक्षरों का
प्रयोग भाषा के लिखित रूप के लिए किया जाता है। हिन्दी आर्य भाषाओं में सबसे ज़्यादा
बोली और लिखी जाने वाली भाषा है। आर्य भाषा का अर्थ इससे ज़्यादा लगाना उचित नहीं है
कि यह उन भाषाओं में शामिल है, जो संस्कृत से निकलकर स्वतंत्र
रूप में स्थापित हो गईं। संस्कृत को सभी भाषाओं की माता मानना अज्ञानता और ज़िद्द के
कारण है। वैज्ञानिक प्रमाणों की बात करने पर यह धारणा धराशायी हो जाती है कि संस्कृत
से दुनिया की सारी भाषाएँ निकली हैं। भारत के दक्षिणी राज्यों की तमिल, तेलुगु, मलयालम और कन्नड़ भाषाएँ आर्य भाषाओं से उत्पन्न
नहीं हैं। तमिल काफी पुरानी, समृद्ध और संस्कृत से स्वतंत्र भाषा
है।
यहाँ यह बताना
भी आवश्यक है कि चीन, वियतनाम, ताइवान,
जापान, कोरिया आदि देश चित्रलिपियों वाले देश हैं।
भाषा कैसे उत्पन्न हुई, क्या ईश्वर ने भाषाओं का निर्माण किया
जैसे प्रश्न लंबी चर्चा वाले हैं। फिलहाल हम अपने विषय पर वापस आकर बात करते हैं।
यह मानना कि ‘ए’, ‘बी’, ‘सी’, ‘डी’ अंग्रेज़ी वर्णमाला के अक्षर हैं, उतना उचित नहीं है, जितना समझा जाता है। ये रोमन वर्णमाला
के अक्षर हैं। उसी तरह हिन्दी की वर्णमाला भी मूल रूप से संस्कृत से निकलती है। लेकिन
हिन्दी में कई अक्षर अरबी और अंग्रेज़ी के संपर्क में आने के बाद जुड़ गए हैं। अक्षर
भाषा या कहें, भाषा के लिखित रूप की कोशिकाएँ हैं। अक्षर वे चित्र हैं, जो किसी भाषा में एक स्थान (लिखते या छापते समय)
लेते हैं। हिन्दी में स्वर और व्यंजन, दो प्रकार
हैं, जो पूरी वर्णमाला को दो भागों में बाँटते हैं। स्वर वे अक्षर हैं, जिनके उच्चारण के लिए मुँह के अंदर जीभ का किसी अंग से स्पर्श नहीं होता। हम
कह सकते हैं कि स्वर वे अक्षर हैं, जिनका उच्चारण गूंगा व्यक्ति
भी कर सकता है। अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अँ, अः और ऑ वर्तमान हिन्दी
के आवश्यक स्वर हैं। अं और अः को व्यंजन मानने वाले भी कई वैयाकरण हैं। ऋ, ऋ का दीर्घ रूप और अं भी स्वर माने जाते हैं, लेकिन वे
वास्तव में बिना जीभ की सहायता के नहीं बोले जाते। ‘ऑ’
अंग्रेज़ी से लिया गया स्वर है।
व्यंजन वे वर्ण
या अक्षर हैं, जिनके उच्चारण में स्वर की सहायता ली जाती है। व्यंजन
अक्षरों के पूर्ण उच्चारण में ‘अ’ की सहायता
ली जाती है, लेकिन आधे उच्चारण में स्वर की सहायता नहीं ली जाती।
क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व श स ष और ह के साथ-साथ क़ ख़ ग़ ज़ फ़ ड़ ढ़ भी व्यंजन माने जा सकते हैं आज की हिन्दी में। ड और ड़, ढ और ढ़, क और क़, ख और ख़,
ग और ग़, ज और ज़ तथा फ और फ़ अलग-अलग हैं, इन्हें एक न समझें।
हिन्दी में
कुछ चिन्हों का प्रयोग भी होता है, उनकी जानकारी भी आवश्यक
है, वे हैं—
, . ! ?। % ~ [ ] < > { } @ # * - + = ( ) _ ₹ " '
: ; / € $ © × ÷
इसके बाद 1 2 3 4 5
6 7 8 9 और 0 हिन्दू अरबी अंक तथा १ २ ३ ४ ५ ६
७ ८ ९ और ० देवनागरी लिपि के अंक भी हैं। बहुत सारे संयुक्ताक्षर जैसे ज्ञ क्ष त्र
श्र क्र स्र आदि भी हैं। गणित या विज्ञान के लिए बहुत सारे संकेतों का प्रयोग भी हिन्दी
में होता है। यूनानी भाषा के अक्षर अल्फा, बीटा, गामा, सिग्मा, डेल्टा आदि कई अक्षर
भी आवश्यक हैं। इसी तरह रोमन वर्णमाला के ए बी सी डी के दोनों रूपों को भी सीखना हिन्दी
के लिए आवश्यक मान सकते हैं, क्योंकि यह लिपि दुनिया की कई भाषाओं
के लिए इस्तेमाल होती है।
ये सब मिलकर
वर्तमान समय में हिन्दी के संकेत समूह को समग्रता में दिखाते हैं। एक विशेष बात यह
है कि
'एै' कोई अक्षर नहीं है।
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